शनिवार, 9 मार्च 2013

कम नही है इटावा मे ” मुगल ए आजम ” के निर्माता की कहानी सुनाने वाले






दिनेश शाक्य
हिन्दुस्तान की कालजई फिल्म ” मुगल ए आजम ” के जनक के.आसिफ को दुनिया का अनोखा फिल्मकार माना जाता है। आजादी से पहले इटावा को ए.ओ.हयूम के नाम से जाता था आजादी के बाद राजनैतिक उतार चढाव मे मुलायम सिंह यादव के कारण इटावा की पहचान देश दुनिया बन गई है। अगर बात करे के.आसिफ की तो के.आसिफ के नाम की भी चर्चा आज कम नही हुई है। 14 मार्च 1922 को इटावा मे पैदा हुये आसिफ की मौत 9 मार्च 1971 को भले ही मुंबई मे हो गई है लेकिन आज भी इटावा की गलियो मे उनकी चर्चाये थमी नही है। 
1960 की ” मुगल ए आजम ” देश की आज भी सबसे अधिक कारोबार करने वाली दूसरी फिल्म है। 1327.10 करोड के कारोबार से ” मुगल ए आजम ” को देखने का आनंद आज भी लोग उठाने से नही चूकते है। के.आसिफ का पूरा नाम कमरूददीन आसिफ था लेकिन सिनेमा लाइन मे जाने के बाद उनका नाम कमरूददीन आसिफ से घट करके के.आसिफ हो गया। 
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के इटावा शहर से के.आसिफ का गहरा नाता रहा है। आसिफ की पैदाइश इटावा शहर के कटरा पुर्दल खा नाम के मुहाल मे हुई है। आफिस के इटावा मे जन्म की कहानी भी बडी ही दिलचस्प है आसिफ के मामा असगर आजादी से पहले इटावा मे घोडे वाले पशु डाक्टर के रूप मे तैनात थे मुस्लिम होने के कारण असगर कटरा पुर्दल खा मे एक मकान मे रहते थे। इसी बीच असगर की बहन लाहौर से अपने भाई असगर के पास इटावा आई। भाई असगर के कमरे मे ही बहन ने एक बेटे को जन्म दिया। 14 मार्च 1922 को पैदा हुये लडके का नाम रखा गया कमरूददीन आसिफ जो जवान होने के बाद सिनेमा लाइन मे आने के बाद के.आसिफ के रूप मे लोकप्रिय हो गया है। असगर के पास ही रह करके आसिफ की परवरिश हुई। घर में चारों तरफ ग़रीबी इस तरह पसरी हुई थी कि हर सांस के साथ उसका अहसास भी जिस्म में पहुंच जाता था। सो ऐसे में पढ़ना-लिखना तो क्या होता। सो नहीं हुआ। और नन्हे से आसिफ एक ज़माने तक दर्ज़ी का काम करते रहे। बड़े लोगों के कपड़े सीते-सीते, उसने बड़े-बड़े ख्वाब बुनना भी सीख लिया। जिस मुहाल मे उनकी पैदाइश हुई थी वो आज भले ही इटावा शहर के बीचो बीच मुस्लिम आबादी बाहुल इलाका हो लेकिन 1922 की तस्वीर बिल्कुल जुदा हुआ करती थी उस समय यह मार्ग इटावा बरेली मार्ग के नाम से जाना जाता था।
कटरा पुर्दल खा नामक मुहाल महफूज अली बताते है कि आजादी से पहले आसिफ के मामा इटावा शहर मे घोडे वाले डाक्टर के तौर पर तैनात थे जिनका नाम असगर था। असगर के यहा ही उनकी बहन लाहौर से आई थी बाद मे उन्होने आसिफ को जन्म दिया। असगर जिस मकान मे रहा करते थे वो महफूज अली का ही हुआ करता था। 1935 मे जन्मे महफूज उत्तर प्रदेश रोडवेज विभाग से कैशियर के रूप मे 1995 मे सेवानिवृत्त हो चुके है। उनका कहना है कि उनके बाबा उनको आसिफ और उनके परिवार के के बारे मे अमूमन बताते रहे है। 1960 मे जब ” मुगल ए आजम ” आई उस समय आसिफ और उनके खानदान की चर्चा इटावा की गलियो और कूचो मे लोगो ने करना शुरू कर दिया। महफूज बताते है कि उन्होने खुद अपने साथियो के साथ एक नही करीब 40 से अधिक बार ” मुगल ए आजम ” को देखने का आनंद लिया आज भी जब मन होता है तो ” मुगल ए आजम ” को देख लेता हूँ।
महफूज बताते है कि 1960 के दौर मे जब ” मुगल ए आजम ” आई तो इटावा मे ” मुगल ए आजम ” की चर्चा कम और आसिफ और उनके खानदान की चर्चा अधिक होती थी। जो भी ” मुगल ए आजम ” देखने जाता वो फिल्म खत्म होने के बाद आसिफ की काबलियत के बारे मे जरूर मे अपनी राय सुमारी करने से नही चूकता। 
” मुगल ए आजम ” के दौर मे कोई भी सिनेमा हाल इटावा शहर मे नही थी सिर्फ टूरिंग टाकीज के तौर पर दो मामूली से हाल लालपुरा और नौरंगाबाद मे हुआ करते थे इनमे ही फिल्मे चला करती थी। 
आजादी से पहले इटावा को ए.ओ.हयूम के नाम से जाता था आजादी के बाद राजनैतिक उतार चढाव मे मुलायम सिंह यादव के कारण इटावा की पहचान देश दुनिया बन गई है। अगर बात करे के.आसिफ की तो के.आसिफ के नाम की चर्चा मे आज भी कम नही हुई है। 
कहा जाता है कि आसिफ की प्रारभिंक शिक्षा इटावा के इस्लामिंया इंटर कालेज मे हुई है लेकिन स्कूली का शुरूआती रिकार्ड नही मिलने के कारण अभी सही ढंग से यह तस्दीक नही हो सका है कि उन्होने किस साल मे प्रारभिंक शिक्षा हासिल की है। स्कूल के प्रधानाचार्य डा0मोहम्मद तारिक ने दो दिन तक रिकार्ड खोजबाने की काफी कोशिश की लेकिन कामयाबी नही मिली उनका कहना है कि चूकि स्कूल मे कक्षा 3 से रिकार्ड मौजूद है इससे ऐसा माना जा रहा है कि पहली और दूसरी का रिकार्ड सुरक्षित नही है। 
आजादी से पहले आसिफ के दूसरे और तीसरे नंबर के मामा नजीर और मजीद लाहौर मे फिल्म निर्माण का काम किया करते थे। मुगल ए आजम से पहले 2 और फिल्मो मे काम किया है जिन फिल्मो को कोई वजूद ही नही रहा है। 1947 मे हुये बंटवारे के बाद भारत आ गये है। 1947 के बाद फिल्म सैहपोरजी और पालोन जी नाम के फांइसेंर की मदद से मुगले ए आजम का निर्माण किया है। 
फिल्म 5 अगस्त 1960 को परदे पर आई थी और इसे तैयार करने में कुल एक करोड़ पांच लाख रुपये खर्च हुए थे। बम्बई में मामू थे। निर्माता-निदेशक-अभिनेता एस.नज़ीर. रंजीत फिल्म स्टूडियो के ठीक सामने एक अहाते में फ्लैट लेकर रहते थे। भांजा पहुंचा तो एक बिस्तर और लग गया। मामा के साथ उनके असिस्टेंट बनकर फिल्म बनाने का हुनर भी सीखना शुरू कर दिया। और भी बहुत कुछ सीखा। 
1944 में आसिफ को फिल्म ‘फूल’ के निदेशन का मौका मिला। अपनी पहली ही फिल्म को मल्टी स्टारर बना दिया। पृथ्वीराज कपूर, मज़हर ख़ान, अशरफ ख़ान, दुर्गा खोटे,सुरैया, वीना और याकूब थे। फिल्म की कहानी थी कमाल अमरोही की। इसी फिल्म के निर्माण के दौरान ही आसिफ ने कमाल अमरोही से ‘अनारकली’ की कहानी सुनी।
आसिफ के ख्वाबों से इस कहानी का रंग इस क़दर समाया था कि फौरन ही यह कहानी उसके ख्वाबों का हिस्सा बन गई। मगर इस कहानी का नाम आसिफ के ख़्वाबों से बहुत छोटा था। 
भारतीय फिल्म जगत के इस महान फिल्मकार का पूरा नाम कमरूददीन आसिफ था। उनकी जीवन कहानी वैसी ही रोचक है, जैसी कई सफल व्यक्तियों की हुआ करती है। 
एक मामूली कपड़े सिलने वाले दर्जी के रूप में उन्होंने अपना कॅरियर शुरू किया था। बाद में लगन और मेहनत से निर्माता-निर्देशक बन गए। अपने तीस साल के लम्बे फिल्म कॅरियर में के आसिफ ने सिर्फ तीन मुकम्मल फिल्में बनाई- फूल (1945), हलचल (1951) और मुगल-ए-आजम (1960)। ये तीनों ही बड़ी फिल्में थीं और तीनों में सितारे भी बड़े थे। फूल जहां अपने युग की सबसे बड़ी फिल्म थी, वहीं हलचल ने भी अपने समय में काफी हलचल मचाई थी और मुगल-ए-आजम तो हिंदी फिल्म जगत इतिहास का शिलालेख है।