शनिवार, 9 मार्च 2013

कम नही है इटावा मे ” मुगल ए आजम ” के निर्माता की कहानी सुनाने वाले






दिनेश शाक्य
हिन्दुस्तान की कालजई फिल्म ” मुगल ए आजम ” के जनक के.आसिफ को दुनिया का अनोखा फिल्मकार माना जाता है। आजादी से पहले इटावा को ए.ओ.हयूम के नाम से जाता था आजादी के बाद राजनैतिक उतार चढाव मे मुलायम सिंह यादव के कारण इटावा की पहचान देश दुनिया बन गई है। अगर बात करे के.आसिफ की तो के.आसिफ के नाम की भी चर्चा आज कम नही हुई है। 14 मार्च 1922 को इटावा मे पैदा हुये आसिफ की मौत 9 मार्च 1971 को भले ही मुंबई मे हो गई है लेकिन आज भी इटावा की गलियो मे उनकी चर्चाये थमी नही है। 
1960 की ” मुगल ए आजम ” देश की आज भी सबसे अधिक कारोबार करने वाली दूसरी फिल्म है। 1327.10 करोड के कारोबार से ” मुगल ए आजम ” को देखने का आनंद आज भी लोग उठाने से नही चूकते है। के.आसिफ का पूरा नाम कमरूददीन आसिफ था लेकिन सिनेमा लाइन मे जाने के बाद उनका नाम कमरूददीन आसिफ से घट करके के.आसिफ हो गया। 
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के इटावा शहर से के.आसिफ का गहरा नाता रहा है। आसिफ की पैदाइश इटावा शहर के कटरा पुर्दल खा नाम के मुहाल मे हुई है। आफिस के इटावा मे जन्म की कहानी भी बडी ही दिलचस्प है आसिफ के मामा असगर आजादी से पहले इटावा मे घोडे वाले पशु डाक्टर के रूप मे तैनात थे मुस्लिम होने के कारण असगर कटरा पुर्दल खा मे एक मकान मे रहते थे। इसी बीच असगर की बहन लाहौर से अपने भाई असगर के पास इटावा आई। भाई असगर के कमरे मे ही बहन ने एक बेटे को जन्म दिया। 14 मार्च 1922 को पैदा हुये लडके का नाम रखा गया कमरूददीन आसिफ जो जवान होने के बाद सिनेमा लाइन मे आने के बाद के.आसिफ के रूप मे लोकप्रिय हो गया है। असगर के पास ही रह करके आसिफ की परवरिश हुई। घर में चारों तरफ ग़रीबी इस तरह पसरी हुई थी कि हर सांस के साथ उसका अहसास भी जिस्म में पहुंच जाता था। सो ऐसे में पढ़ना-लिखना तो क्या होता। सो नहीं हुआ। और नन्हे से आसिफ एक ज़माने तक दर्ज़ी का काम करते रहे। बड़े लोगों के कपड़े सीते-सीते, उसने बड़े-बड़े ख्वाब बुनना भी सीख लिया। जिस मुहाल मे उनकी पैदाइश हुई थी वो आज भले ही इटावा शहर के बीचो बीच मुस्लिम आबादी बाहुल इलाका हो लेकिन 1922 की तस्वीर बिल्कुल जुदा हुआ करती थी उस समय यह मार्ग इटावा बरेली मार्ग के नाम से जाना जाता था।
कटरा पुर्दल खा नामक मुहाल महफूज अली बताते है कि आजादी से पहले आसिफ के मामा इटावा शहर मे घोडे वाले डाक्टर के तौर पर तैनात थे जिनका नाम असगर था। असगर के यहा ही उनकी बहन लाहौर से आई थी बाद मे उन्होने आसिफ को जन्म दिया। असगर जिस मकान मे रहा करते थे वो महफूज अली का ही हुआ करता था। 1935 मे जन्मे महफूज उत्तर प्रदेश रोडवेज विभाग से कैशियर के रूप मे 1995 मे सेवानिवृत्त हो चुके है। उनका कहना है कि उनके बाबा उनको आसिफ और उनके परिवार के के बारे मे अमूमन बताते रहे है। 1960 मे जब ” मुगल ए आजम ” आई उस समय आसिफ और उनके खानदान की चर्चा इटावा की गलियो और कूचो मे लोगो ने करना शुरू कर दिया। महफूज बताते है कि उन्होने खुद अपने साथियो के साथ एक नही करीब 40 से अधिक बार ” मुगल ए आजम ” को देखने का आनंद लिया आज भी जब मन होता है तो ” मुगल ए आजम ” को देख लेता हूँ।
महफूज बताते है कि 1960 के दौर मे जब ” मुगल ए आजम ” आई तो इटावा मे ” मुगल ए आजम ” की चर्चा कम और आसिफ और उनके खानदान की चर्चा अधिक होती थी। जो भी ” मुगल ए आजम ” देखने जाता वो फिल्म खत्म होने के बाद आसिफ की काबलियत के बारे मे जरूर मे अपनी राय सुमारी करने से नही चूकता। 
” मुगल ए आजम ” के दौर मे कोई भी सिनेमा हाल इटावा शहर मे नही थी सिर्फ टूरिंग टाकीज के तौर पर दो मामूली से हाल लालपुरा और नौरंगाबाद मे हुआ करते थे इनमे ही फिल्मे चला करती थी। 
आजादी से पहले इटावा को ए.ओ.हयूम के नाम से जाता था आजादी के बाद राजनैतिक उतार चढाव मे मुलायम सिंह यादव के कारण इटावा की पहचान देश दुनिया बन गई है। अगर बात करे के.आसिफ की तो के.आसिफ के नाम की चर्चा मे आज भी कम नही हुई है। 
कहा जाता है कि आसिफ की प्रारभिंक शिक्षा इटावा के इस्लामिंया इंटर कालेज मे हुई है लेकिन स्कूली का शुरूआती रिकार्ड नही मिलने के कारण अभी सही ढंग से यह तस्दीक नही हो सका है कि उन्होने किस साल मे प्रारभिंक शिक्षा हासिल की है। स्कूल के प्रधानाचार्य डा0मोहम्मद तारिक ने दो दिन तक रिकार्ड खोजबाने की काफी कोशिश की लेकिन कामयाबी नही मिली उनका कहना है कि चूकि स्कूल मे कक्षा 3 से रिकार्ड मौजूद है इससे ऐसा माना जा रहा है कि पहली और दूसरी का रिकार्ड सुरक्षित नही है। 
आजादी से पहले आसिफ के दूसरे और तीसरे नंबर के मामा नजीर और मजीद लाहौर मे फिल्म निर्माण का काम किया करते थे। मुगल ए आजम से पहले 2 और फिल्मो मे काम किया है जिन फिल्मो को कोई वजूद ही नही रहा है। 1947 मे हुये बंटवारे के बाद भारत आ गये है। 1947 के बाद फिल्म सैहपोरजी और पालोन जी नाम के फांइसेंर की मदद से मुगले ए आजम का निर्माण किया है। 
फिल्म 5 अगस्त 1960 को परदे पर आई थी और इसे तैयार करने में कुल एक करोड़ पांच लाख रुपये खर्च हुए थे। बम्बई में मामू थे। निर्माता-निदेशक-अभिनेता एस.नज़ीर. रंजीत फिल्म स्टूडियो के ठीक सामने एक अहाते में फ्लैट लेकर रहते थे। भांजा पहुंचा तो एक बिस्तर और लग गया। मामा के साथ उनके असिस्टेंट बनकर फिल्म बनाने का हुनर भी सीखना शुरू कर दिया। और भी बहुत कुछ सीखा। 
1944 में आसिफ को फिल्म ‘फूल’ के निदेशन का मौका मिला। अपनी पहली ही फिल्म को मल्टी स्टारर बना दिया। पृथ्वीराज कपूर, मज़हर ख़ान, अशरफ ख़ान, दुर्गा खोटे,सुरैया, वीना और याकूब थे। फिल्म की कहानी थी कमाल अमरोही की। इसी फिल्म के निर्माण के दौरान ही आसिफ ने कमाल अमरोही से ‘अनारकली’ की कहानी सुनी।
आसिफ के ख्वाबों से इस कहानी का रंग इस क़दर समाया था कि फौरन ही यह कहानी उसके ख्वाबों का हिस्सा बन गई। मगर इस कहानी का नाम आसिफ के ख़्वाबों से बहुत छोटा था। 
भारतीय फिल्म जगत के इस महान फिल्मकार का पूरा नाम कमरूददीन आसिफ था। उनकी जीवन कहानी वैसी ही रोचक है, जैसी कई सफल व्यक्तियों की हुआ करती है। 
एक मामूली कपड़े सिलने वाले दर्जी के रूप में उन्होंने अपना कॅरियर शुरू किया था। बाद में लगन और मेहनत से निर्माता-निर्देशक बन गए। अपने तीस साल के लम्बे फिल्म कॅरियर में के आसिफ ने सिर्फ तीन मुकम्मल फिल्में बनाई- फूल (1945), हलचल (1951) और मुगल-ए-आजम (1960)। ये तीनों ही बड़ी फिल्में थीं और तीनों में सितारे भी बड़े थे। फूल जहां अपने युग की सबसे बड़ी फिल्म थी, वहीं हलचल ने भी अपने समय में काफी हलचल मचाई थी और मुगल-ए-आजम तो हिंदी फिल्म जगत इतिहास का शिलालेख है।

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

चंबल मे डाकुओ की बजाय बच्चो का याद है अखिलेश का नाम




दिनेश शाक्य 
धांय,धांय,धांय..................................... सिर्फ गोलियो की आवाज ही इन गांवो के आसपास सुनाई देती थी कभी। इसी कारण गांव वालो की जिंदगी नासुर बन गई थी लेकिन अब तस्वीर बिल्कुल बदल चुकी है। ना तो डाकू है और उनकी बंदूक से निकलने वाली गोलियो की धांय धांय करती आवाज। डाकुओ के आंतक और दहशत से आजाद अब गांव वाले अपनी जिंदगी अपने अंदाज मे जीने लगे है। जो सरकारी स्कूल डाकुओ के आंतक से कभी खुला नही करते थे वे आज खुलने लगे है। जिन खेतो मे फसल करने की लोग हिम्मत नही जुटा पाते थे आज इस कदर फसले कर दी है कि पूरे के पूरे चंबल मे सिर्फ हरियाली ही हरियाली नजर आ रही है। सबसे हैरत की बात तो यही मानी जायेगी कि कोई भी गांव वाला अपने बच्चो को अब डाकुओ की नाम भी सुनना पंसद नही करता है इसी कारण स्कूली बच्चो को खूंखार डाकुओ के नामो की जगह अब मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का नाम याद है। 
यह तस्वीर किसी एक गांव की नही बल्कि करीब दो दर्जन से अधिक ऐसे गांवो की ही जो कभी खूंखार डाकुओ के आतंक की व्यापक जद मे थे लेकिन आज लगता ही नही कभी इस गांवो मे डाकुओ का साया भी था। इन गांव मे जाने का मौका हमेशा खूंखार जगजीवन परिहार के कारण ही मिला। साल 2003 मे सबसे जगजीवन के चौरैला गांव की तस्वीर को कडे सुरक्षा घेरे मे करीब 10 किलोमीटर लंबी पुलिसिया काबिंग के दौरान देखने को मिला था उससे बाद लगातार आने जाने का सिलसिला चलता रहा। 2006 मे जिस दिन जगजीवन परिहार गैंग की मध्यप्रदेश के मुरैना और भिंड सीमा मे पुलिस से मुठभेड हुई उस दिन भी जगजीवन के खंडहर घर को देख  रहा था। इटावा के अपर जिला जज अमर पाल सिंह ने जगजीवन के दो मौसी के लडके कमलेश और रामेंद्र को उम्रकैद की सजा सुनाई तो गांव का हाल जानने का मन हुआ करीब 8 साल बाद जगजीवन प्रभावित गांवो की तस्वीर पूरी तरह से बदल चुकी है लगता ही नही कि कभी 8 लाख के इनामी सौ डाकुओ के गैंग के आतंक से जूझते रहे होगे।
एक समय चंबल के खूखांर डाकुओ मे सुमार रहे जगजीवन परिहार के गांव चौरैला के आसपास के दर्जनो गांव मे खासी दहशत और आंतक डाकुओ की आवाजाही के कारण देखा और सुना जाता रहा लेकिन जगजीवन के अलावा उसके गैंग के दूसरे सभी डाकुओ को खात्मा हो जाने के बाद अब जगजीवन के गांव और आसपास के गांव मे लोगो मे भय और डर काफूर हो गया है। गांव वाले अब डाकुओ की दहशत से पूरी तरह से आजाद हो गये है। डाकू जगजीवन के गांव चौरैला से सटा हुआ है ललूपूरा गांव जिस गांव को जाने के लिये कभी सिर्फ बीहडी रास्ता हुआ करता था लेकिन आज सरकार ने सडक का निर्माण करके गांव वालो का दिल जीत लिया है। साल 2005 मे होली की रात जगजीवन गैंग के हथियार बंद दर्जनो डकैतो ने आंतक मचाते हुये अपने गांव चौरैला मे अपनी ही जाति के युवक को होलिका मे जिंदा जलाने के बाद ललुपुरा मे चढाई कर दी थी और रधुनाथ को बातचीत के नाम पर गांव मे बने तालाब के पास ला कर मौत के घाट उतार दिया था इतने मे भी डाकुओ को सुकुन नही मिला तो पुरा रामप्रसाद मे जाकर सो रहे दलित को गोली मार कर मौत की नींद मे सुला दिया। 
इस दुर्लभतम कांड की गूंज पूरे देश मे इसलिये सुनाई दी क्यो इससे पहले होलिका मे किसी जिंदा को डाल करके मारने का चंबल के इतिहास का यह पहला मामला था। पहले से बंद सरकारी स्कूलो मे पुलिस और पीएसी बल के जवानो को कैंप करा दिया गया है। आज सरकारी स्कूल डाकुओ के आंतक से पूरी तरह से मुक्ति पा चुका है और लगातार खुल रहा है ना केवल प्राथमिक स्कूल बल्कि जूनियर हाईस्कूल भी। जिनमे गांव के मासूम बच्चे पढने के लिये आते है और पूरे समय रह करके शिक्षको से सीख लेते है। स्कूल मे तैनात हैड मास्टर गोविंद सिंह बताते है कि उनकी इस स्कूल मे तैनाती 14 मई 2009 को हुई थी और तब से लगातार इटावा से वे यहा प्रतिदिन आकर बच्चो को पढाते है। उनका कहना है कि जब उनकी तैनाती का नियुक्त पत्र मिला था तो दो दिन खाना नही खाया था क्यो कि इस इलाके मे होते रहे अपहरणो के बारे मे सुन रखा था लेकिन हिम्मत करके जब इस गांव मे आया तो गांव वालो ने हाथो हाथ लिया। अब ऐसा लगता है कि मानो अपने घर मे ही पढा रहा हूं। 
इसी स्कूल का शिक्षामित्र बृजेश कुमार भी डाकुओ के आतंक का अपना दर्द बयान किये बिना चूका उसने बताया कि जब जगजीवन के इस गांव पर चढाई की थी उसके बाद तो स्कूल पर पीएसी ने कैंप कर लिया तब बच्चो को पढाने के लिये प्रधान के घर पर स्कूल खोला गया था वही पर थोडी बहुत पढाई बच्चो को कराई जाती थी। जगजीवन के साथियो समेत मारे जाने के बाद पूरी तरह से सुकून महसूस हो रहा है। जिस समय डाकुओ का आतंक था उस समय ना तो कोई रिश्तेदार आ पाता था और लोग अपने घरो के बजाय दूसरे मे घरो मे रात बैठ करके काटा करते थे क्यो कि आंतक के कारण आंखो की नींद को भी डाकुओ ने उडा दिया था। शिक्षामित्र बृजेश कुमार यह बताने से भी नही चूका कि पहले कभी खेतो पर रखवाली नही कर पाते थे लेकिन आज अपनी फसलो की भी रखवाली करना बहुत आसान है। डाकुओ के आंतक के कारण पहले ऐसा भी हुआ है कि खेतो मे फसल की धमकी के बाद खेतो मे ही छोड दी अगर कोशिश की तो डाकुओ ने खेतो मे ही आग लगा करके फूक डाली।
स्कूल मे पढने वाले लडको को आज ना तो डाकुओ के बारे मे कोई जानकारी है और ना ही उनके परिजन उनको डाकुओ के बारे मे कुछ भी बताना चाह रहे है। इसी कारण गांव मे मासूम बच्चे पूरी तरह से डाकुओ से अनजान भी है और हमेशा अनजान ही रहना चाह रहे है। कक्षा पांच का छात्र हरिशचंद्र से बात चीत मे एक बात साफ हुई कि उसके माता पिता या फिर गांव वालो ने उसे कभी डाकुओ के बारे मे नही बताया इसी कारण उसे किसी भी डाकु का नाम नही पता है। स्कूल के हैडमास्टर गोविंद सिंह डाकू प्रभावित इस स्कूल के बच्चो को क्या पढा रहे है इसकी एक बानगी यही पर देखने को इसलिये मिल जाती है कि डाकुओ के बजाय स्कूली बच्चे मुख्यमंत्री और जिलाधिकारी का नाम जानने लगे है और डाकुओ को भूल गये है। 
ललूपुरा गांव वासिनी श्रीमती बिटानी देवी का कहना है कि आज बहुत सुकून है जब कल बहुत बुरा था वैसे तो कल को याद ही नही करना चाह रहे है लेकिन जब कभी कल की याद आ जाती है तो मानो ऐसा लगता है कि फिर से गुलाम हो गये। डाकुओ ने आतंक ने पूरी तरह से आजाद को कैद कर लिया था। वे बताती है कि अब तो लोग गांव मे आकर अपने अपने मकानो को बनाने मे भी लग गये जब कि पहले दूर दराज किराये के मकानो को लोग रहा करते थे। 
गांव मे कई ऐसे भी लोग खेत खलिहान और रास्ते पर चलते फिरते मिले जो इससे पहले ना तो कभी नजर आया करते थे या फिर वो अजनबी समान लग रहे थे पता करने पर मालूम हुआ कि डाकूओ के मारे जाने के बाद अपने गांव वापस लौट आये है इनमे चौरैला के हनुमंत सिंह है। हनुमंत सिंह करीब 15 साल पहले गुजरात चले गये थे जहा पर पत्थर की धिसाई का काम करके अपने परिवार का भरण पोषण करते थे लेकिन जगजीवन समेत सभी डाकुओ के मारे जाने के बाद अपने बीबी बच्चो के साथ गांव मे लौट आये है। आज हनुमंत सिंह अपने खेतो मे सरसो,गेंहू की फसल दिखाते हुये बेहद खुश नजर आते। बातचीत के दौरान उनके चेहरे पर आई हंसी गांव मे खत्म हो चुके आंतक की कहानी खुद वा खुद बयान करती है। उनका कहना है कि जब डाकू थे तब ऐसी फसल नही लहलहाती थी लेकिन आज खुद देख सकते है। 
ललुपुरा से निकलने के बाद बीच रास्ते मे चौरैला गांव का राहुल सिंह मिला जो अपने खेतो की ओर जा रहा था उसने बताया कि वो डाकू आंतक के कारण पढने के लिये राजस्थान चला गया था। डाकुओ के मारे जाने के बाद अब अपने गांव लौट आया है और पडौसी राज्य मध्यप्रदेश के एक स्कूल मे कक्षा 12 की पढाई कर रहा है उसकी मंशा एयर फोर्स मे नौकरी करने की। राहुल यह भी बताने से खुश होता है कि जब से उत्तर प्रदेश मे अखिलेश यादव की अगुवाई मे सरकार आई है तब से गांव वालो का 18 घंटे तक बिजली खूब मिल रही है इससे खेतो मे फसल के लिये पानी खूब मिल पा रहा है। 
जगजीवन के गांव चौरैला से करीब 5 किलो मीटर दूर जालौन जिले मे आता है जखेता गांव है। और खूंखार डाकू सलीम गूर्जर का गांव बिडौल जो इसी रास्ते से होता हुआ करीब 8 किलोमीटर दूरी पर है। इन दोनो गांव के लिये जगजीवन परिहार के ही गांव से हो करके रास्ता जाता है। चौरैला के अलावा ललूपुरा,बिडौल,पुरा रामप्रसाद,बिडौरी,पहलन,नीवरी,कचहरी,करियावली,गता,अनेठा,कुवरपुर कुर्छा, खोडन,जाहरपुर,पिपरौली गढिया,गौरनपुरा,बिठौली समेत दर्जनो ऐसे दर्जनो गांव है जिनमे जगजीवन की तूती बोला करती थी। इन गांवो मे डाकूओ के आंतक के कारण गांव मे विकास कार्य कराने की हिम्मत किसी भी सरकारी गैर सरकारी विभाग की नही पडी लेकिन अब डाकुओ के खात्मा हो जाने के बाद नेता कई बार गांव मे सडक नाली बिजली पाने का इंतजाम करना का भरोसा दे गये फिर भी किया कुछ नही इससे गांव वालो मे नाराजगी जरूर है। 
यहा पर हम जिस जगजीवन परिहार के आतंक की चर्चा कर रहे है वो साधारण इंसान ही था लेकिन अपनी जाति के लोगो के संरक्षण के बलबूते पर उसकी ताकत पूरे क्षत्रिय समाज की ताकत मानी जाने लगी थी। चंबल घाटी के कुख्यात दस्यु सरगना के रूप मे आंतक मचाये रहे जगजीवन परिहार का नाम एक बार फिर से सुर्खियो मे आ गया। जगजीवन के सुर्खियो मे आने की मुख्य वजह उमाशंकर दुबे हत्याकांड मे अदालत की ओर से उसके दो मौसी के लडको को उम्र कैद की सजा सुनाया जाना है। जगजीवन ने जाति विशेष के लोगो के सामूहिक अपहरण की वारदातो के अलावा अपने गांव मे होली वाली रात ऐसा वीभत्स कांड किया जिसकी गूंज पूरे देश मे सुनाई दी। जगजीवन ने एक जिंदा आदमी का होलिका मे जलाने के साथ 3 को मौत के घाट उतार करके 5 का अपहरण कर लिया था। साल 2005 हुई इस कांड के बाद जगजीवन के खिलाफ पुलिस ने पूरे मनोयोग से मोर्चा खोल दिया था। उत्तर प्रदेश के इटावा मे अपर जिला जज अमर सिंह की अदालत की उमाशंकर दुबे हत्याकांड मे जगजीवन के मौसी के लडके कमलेश और रामेंद्र को उमकैद की सजा सुनाई गई है। इस कांड मे 12 जून 2007 को इसी हत्याकांड के कल्लू सिंह,केदार सिंह,रामबरन सिंह,सुखदेव सिंह,मुकेश सिंह,समरथ सिंह व मुन्नू सिंह को उम्र कैद की सजा सुनाई जा चुकी है लेकिन कमलेश और रामेंद्र को हुई सजा से एक बार फिर से जगजीवन का नाम सुर्खियो मे आ गया है। 
जगजीवन परिहार ने अपने ही गांव चौरैला गांव के अपने पडोसी उमाशंकर दुबे की 6 मई 2002 को जगजीवन परिहार ने करीब 11 लोगो के साथ मिल करके घारदार हथियारो से काट करके हत्या कर दी थी और सिर और दोनो हाथ काट करके ले गया था। इटावा पुलिस ने जगजीवन को जिंदा या मुर्दा पकडने के लिये इसी कांड के बाद पांच हजार रूपये का इनाम घोषित किया था लेकिन जगजीवन परिहार चंबल घाटी का नामी डकैत बन गया था एक समय जगजीवन परिहार के गैंग पर उत्तर प्रदेश,मध्यप्रदेश और राजस्थान पुलिस ने करीब 8 लाख का इनाम घोषित किया था। उमाशंकर दुबे की हत्याकांड के बाद जगजीवन ने एक जाति विशेष लोगो के एक सौ एक सिर काटने का प्रण किया था इस ऐलान के बाद पूरे चंबल मे सनसनी फैल गई थी। जगजीवन अपना प्रण पूरा कर पाता उससे पहले ही मध्यप्रदेश मे पुलिस ने जोरदार मुठभेड मे जगजीवन समेत गैंग के आठ डकैतो का खात्मा कर दिया।
भले ही जगजीवन परिहार और उसके गैंग का सफाया हो चुका हो लेकिन उमाशंकर दुबे हत्याकांड मे हुई सजा के बाद कोई भी गांव वाला सही ढंग से उस कांड पर चर्चा करना मुनासिब नही समझता है। मध्यप्रदेश की सीमा पर बसे चौरैला गांव मे ना तो उमाशंकर दुबे का परिवार रहता है और ना ही डकैत जगजीवन परिहार के गैंग का कोई सदस्य। उमाशंकर हत्याकांड के बाद बडे स्तर गांव से पलायन शुरू हो गया था।